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बच्ची सीता और न्याय की पड़ताल: क्या संवेदना पर प्रक्रिया भारी पड़ी?

– संपादकीय

भारत में गोद लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी और सुव्यवस्थित बनाने के लिए कानून बनाए गए हैं। लेकिन जब संवेदना, लगाव और न्याय की बात आती है, तो क्या यह प्रक्रियाएं न्यायसंगत होती हैं? बरेली की बच्ची “सीता” का मामला इसी प्रश्न को जन्म देता है।

### सीता का चमत्कारी बचाव

यह मामला अक्टूबर 2019 का है, जब बरेली के एक श्मशान भूमि में एक नवजात बच्ची को ज़मीन में दबे घड़े से निकाला गया। एक संयोगवश, जब हितेश कुमार सिरोही अपनी मृत बेटी को दफनाने आए, तो उन्होंने इस बच्ची को बचाया। बच्ची को तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उसकी हालत गंभीर थी।

इस पूरे घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन विधायक राजेश मिश्रा उर्फ पप्पू भरतौल की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। उन्होंने न केवल बच्ची के इलाज का जिम्मा उठाया, बल्कि उसे गोद लेने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी। वह उसे अपनी भतीजे के माध्यम से अपने परिवार का हिस्सा बनाना चाहते थे।

### संवेदनशीलता बनाम नौकरशाही प्रक्रिया

बच्ची को कानूनी रूप से गोद लेने की प्रक्रिया केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (CARA) द्वारा नियंत्रित की जाती है। आरोप है कि CARA की वेबसाइट में खामी के चलते सीता का ब्योरा भारतीय दत्तक अभिभावकों को उपलब्ध ही नहीं कराया गया, बल्कि इसे सीधे विदेशी अभिभावकों को दिखाया गया। नतीजतन, मार्च 2022 में माल्टा के एक ईसाई दंपति (मिकेल कैमेलेरी) ने इसे गोद लेने की प्रक्रिया पूरी कर ली।

राजेश मिश्रा ने इसे एक “गहरी साजिश” बताया और इस मामले को केंद्र सरकार तक पहुंचाया। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) ने मामले की जांच के आदेश दिए और गृह मंत्रालय ने नए नियम लागू किए कि अब जिला मजिस्ट्रेट की अंतिम अनुमति आवश्यक होगी।

### सुप्रीम कोर्ट तक लड़ा गया मामला

सीता को गोद लेने की प्रक्रिया रोकने के लिए राजेश मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। उनका दावा था कि वे बच्ची को पालने और सुरक्षा देने में पूरी तरह सक्षम थे। लेकिन, न्यायपालिका और नौकरशाही की प्रक्रिया में संवेदनशीलता और भावनात्मक पहलू की अनदेखी कर दी गई। आखिरकार, मामला दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचा, जहां जस्टिस यशवंत वर्मा की अध्यक्षता में इस पर सुनवाई हुई।

### क्यों हुआ माल्टा को सौंपने का फैसला?

  • नियमानुसार विदेशी दत्तक ग्रहण: भारतीय कानून के तहत यदि तीन महीने तक बच्ची के जैविक माता-पिता सामने नहीं आते, तो उसे गोद देने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। अंतरराष्ट्रीय दत्तक ग्रहण को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति के चलते, यह बच्ची माल्टा के दंपति को दे दी गई।
  • प्रक्रियात्मक मजबूरियां: न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि दत्तक ग्रहण की प्रक्रिया कानूनी रूप से पूरी हो चुकी थी और माल्टा के दंपति ने सभी आवश्यक दस्तावेज और शर्तें पूरी कर दी थीं।
  • न्यायपालिका का असंवेदनशील दृष्टिकोण?: राजेश मिश्रा का भावनात्मक जुड़ाव और उनके द्वारा किए गए प्रयासों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। इस फैसले ने यह सवाल उठाया कि क्या केवल कानूनी प्रक्रियाएं ही अंतिम सत्य हैं, या फिर इंसानियत और जुड़ाव भी मायने रखते हैं?

### माल्टा और विदेशी दत्तक ग्रहण का मुद्दा

माल्टा, जिसकी कुल आबादी मात्र 5 लाख है, वहां अब तक 35,000 से अधिक भारतीय बच्चों को गोद दिया जा चुका है। यह आँकड़ा चौंकाने वाला है और यह प्रश्न खड़ा करता है कि क्या भारतीय अनाथ बच्चों को जानबूझकर विदेशी परिवारों को सौंपा जा रहा है? क्या यह प्रक्रिया भारतीय पालकों के साथ न्याय कर रही है?

कई मामलों में देखा गया है कि भारतीय अभिभावकों को गोद लेने की प्रक्रिया में जानबूझकर देर कराई जाती है, ताकि विदेशी पालकों को प्राथमिकता दी जा सके। यह न केवल कानूनी प्रक्रिया पर संदेह पैदा करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि हमारी न्याय प्रणाली कहीं न कहीं भावनात्मक पहलुओं को नजरअंदाज कर रही है।

### निष्कर्ष

सीता का मामला यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या किसी मासूम की परवरिश और सुरक्षित भविष्य के लिए केवल कानूनी प्रक्रिया ही मायने रखती है, या फिर उसके प्रति जुड़ाव, सुरक्षा और वास्तविक देखभाल का भी कोई महत्व है?

राजेश मिश्रा जैसे लोग, जिन्होंने बच्ची के लिए संघर्ष किया, संवैधानिक प्रक्रियाओं की जटिलता में हार गए। यदि भारतीय परिवार इस बच्ची को बेहतर जीवन दे सकते थे, तो उसे विदेश भेजना कितना न्यायसंगत है?

सीता जैसी मासूमों के लिए, क्या यह न्याय का असल स्वरूप है, या फिर एक ऐसी प्रणाली की क्रूरता जो कानून की आड़ में संवेदनशीलता को कुचल देती है?