
अयोध्या के रामपथ पर 23.35 लाख रुपये से लगाए गए 2600 बैंबू लाइट्स महज डेढ़ साल में ही बंद हो गए, लेकिन प्राधिकरण के अधिशासी अभियंता ए.के. सिंह का तर्क है कि “बंदरों ने लाइटें तोड़ दीं।” सवाल यह है कि क्या बंदरों को दोष देकर लाखों रुपये की लापरवाही और संभावित भ्रष्टाचार को छुपाया जा सकता है?
मामले की मुख्य बातें:
- बेकार हो चुकी लाइटें: जिन लाइटों से रामपथ को सजाया गया था, वे अब सिविल लाइंस, बेनीगंज समेत कई इलाकों में खराब पड़ी हैं।
- जनता का गुस्सा: स्थानीय निवासियों का कहना है कि 6 महीने से कोई मरम्मत नहीं हुई, जबकि करोड़ों रुपये खर्च किए गए।
- फर्जीवाड़े का आरोप: ठेकेदार ने 3800 लाइटों की चोरी की झूठी एफआईआर दर्ज कराई, जबकि असल में सिर्फ 2600 ही लगाए गए थे। क्या यह अतिरिक्त भुगतान का षड्यंत्र था?
- मिलीभगत का शक: पूर्व अधिकारियों के साथ ठेकेदार की सांठगांठ के आरोप हैं, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई।
सवाल जवाबदेही पर:
- क्या बंदरों को दोष देकर सरकारी पैसे की बर्बादी को जायज ठहराया जा सकता है?
- अयोध्या विकास प्राधिकरण ने गुणवत्ता और रखरखाव पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
- करप्शन के आरोपों की जांच कब होगी?
निष्कर्ष:
रामनगरी को सजाने के नाम पर जनता के पैसे की लूट और फिर जिम्मेदारों की चुप्पी—यह मामला सिर्फ बिजली की नहीं, बल्कि प्रशासनिक अंधेरे की कहानी बयां करता है। अयोध्या के विकास के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही की सख्त जरूरत है, न कि बंदरों को दोष देने की सस्ती रणनीति!